डॉलर को क्या प्रभावित करता है

अमेरिकी डॉलर सोने की कीमतों को कैसे प्रभावित करता है?
सोना हमारी जानकारी के अनुसार विनिमय के सबसे पुराने साधनों में से एक है और काफी लम्बे समय तक इसने एक मुद्रा की भूमिका निभायी है। आज जहाँ अन्य मुद्राओं ने यह भूमिका ले ली है, आधुनिक दौलत और सोने का आपसी सम्बंध नहीं खोया है।
गोल्ड स्टैंडर्ड के पतन के बाद, अमेरिकी डॉलर ही सोने और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए वास्तविक मानक मूल्य निर्धारण तंत्र बन गया। फलत: दोनों एक दूसरे से बहुत करीब से जुड़े हैं। तो आइए देखते हैं अमेरिकी डॉलर सोने की कीमतों को कैसे प्रभावित करता है।
सोना एक बहुमुखी सम्पत्ति है, और इसकी डॉलर को क्या प्रभावित करता है कीमत दुनिया भर की सभी मुद्राओं के कुल अनुमानित मूल्य के प्रति संवेदनशील है। भय या भू-राजनैतिक उथल-पुथल के समय, सोने की कीमत में उछाल आता है, ठीक वैसे ही जैसे जुलाई में अमेरिका-चीन के बीच व्यापारिक चिंता के कारण हुआ था। हालाँकि, उसके तुरंत बाद अगस्त में, इन भू-राजनैतिक चिंताओं के बावजूद, सोना 20 महीनों में सबसे ज़्यादा नीचे गया। और इसके पीछे सबसे मुख्य कारण रहा डॉलर का तगड़ा होना। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ था कि डॉलर के तेज़ होने के कारण या फिर अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था के कारण सोने के मूल्य में उतार-चढ़ाव हुआ हो।
डॉलर डॉलर को क्या प्रभावित करता है और सोने के बीच मूल्यों का सम्बंध महत्त्वपूर्ण है, लेकिन ऐसा नहीं है कि सोने की कीमत को प्रभावित करने का एकमात्र कारक डॉलर ही है। चूँकि सोना खुद में ब्याज उत्पन्न नहीं करता, तो यह निवेश की मांग के लिए अन्य ब्याज वाली सम्पत्तियों से स्पर्धा करता है। जब ब्याज दर बढ़ता है, सोने की कीमत गिर जाती है क्योंकि अन्य सम्पत्तियों की मांग बढ़ जाती है। इसका कारण है कि अधिक ब्याज घटक के कारण अधिक प्रतिफल यानि रिटर्न कमाया जा सकता है।
तो अमेरिकी डॉलर सोने की कीमत को कैसे प्रभावित करता है?
तो आइए सोने की कीमत पर डॉलर के प्रभाव को विस्तार से समझते हैं। अमेरिका सोने का मुख्य उत्पादक नहीं है फिर भी अमेरिकी आधिकारिक भंडारों में विश्व के समस्त सोने का एक बहुत बड़ा भाग है। और यह स्थान उसने अपने अधिकांश स्टॉक को आयात करके बनाया है।
जब डॉलर कमज़ोर होता है तो सोना आयात करना अधिक महँगा पड़ जाता है। इसलिए, कम्पनियों को उत्पाद और सेवाएँ आयात करने के लिए अधिक डॉलर का भुगतान करना पड़ता है। इसके अलावा, बुलियन के व्यवसायिओं और सरकार को भी सोने के लिए अधिक भुगतान करना पड़ रहा है। इस कारण सोने की कीमत में वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत, डॉलर का मजबूत होना यानि सोने की कीमत में गिरावट।
डॉलर में गिरावट अमेरिकी ऋण के विदेशी धारकों को भी प्रभावित करती है, जो बदले में, अमेरिकी कोष और वहाँ की अर्थ-व्यवस्था में उनका विश्वास कम कर देता है। अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था में डगमगाया हुआ भरोसा भी सोने की कीमत को बढ़ाने में सहायक होता है।
इसी तरह, अमेरिकी डॉलर के मूल्य में गिरावट आर्थिक मुद्रास्फीति का एक लक्षण भी हो सकता है। कागज़ी मुद्राओं को गिरावट का खतरा होते ही लोग सोने की ओर रुख करने लगते हैं। बढ़ती मुद्रास्फीति सोने की कीमतों के लिए अच्छी है। और यदि अर्थ-व्यवस्था में विश्वास ख़त्म हो जाए तो मुद्रास्फीति के बाद की सोने की कीमत सकारात्मक भी हो सकती है। इस मुद्दे पर 2008 का सब-प्राइम संकट एक मामला है। उस दौरान, ज़मीन की कीमतमें भी गिरावट आयी और ईक्विटी में भी बहुत बड़ा सेल-ऑफ हुआ, जिससे सुरक्षित आश्रय होने के कारण, सारा ध्यान सोने की तरफ केंद्रित हुआ। दरअसल, उस समय, सोने की कीमत पर संकट का सकारात्मक प्रभाव काफी स्पष्ट रहा और सोने की कीमत ने करीब $1,900 प्रति औंस की ऐतिहासिक ऊँचाई हासिल की।
सोने और रुपये-डॉलर का समीकरण
भारतीय उपभोक्ता सोने को निवेश सम्पत्ति और श्रृंगार दोनों के रूप में देखते हैं। जनसंख्या का तीन-चौथाई भाग सोना खरीदने के पीछे मुख्य कारण बताता है उसका एक सुरक्षित निवेश होना, और बाकी के डॉलर को क्या प्रभावित करता है लिए सोना खरीदने के फैसले के पीछे कारण है श्रृंगार।
रुपये और डॉलर का आपसी सम्बंध भारत में सोने की कीमत तय करने में एक अहम भूमिका निभाता है हालाँकि इसका सोने की वैश्विक कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यहाँ की मांग स्थानीय आपूर्ति से पूरी होना तो दूर की बात है, सिर्फ वार्षिक मांग ही आयात से पूरी की जाती है। यदि डॉलर के आगे रुपया कमज़ोर पड़ जाए, तो डॉलर की कीमत से समीकृत करने के लिए रुपये में अधिक भुगतान करना पड़ेगा।
संक्षेप में कहें तो, डॉलर की कीमत में उछाल या गिरावट सोने की वैश्विक कीमत को विपरीत दिशा में प्रभावित करता रहेगा। हालाँकि अमेरिकी डॉलर सोने की कीमत को प्रभावित करने का एकमात्र कारक नहीं है, तो भी इतिहास गवाह है कि मुद्रास्फीति के समय, जब डॉलर का प्रदर्शन कुछ ख़ास नहीं चल रहा था, उस समय निवेशक सोने का ही सहारा लेते आये हैं।
डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत कैसे तय होती है, रुपया कमजोर, डॉलर मजबूत क्यों हुआ?
भारतीय रुपया इस साल डॉलर के मुकाबले करीब 7 फीसदी कमजोर हुआ है. न केवल रुपया बल्कि दुनियाभर की करेंसी डॉलर के मुकाबले कमजोर हुई हैं. यूरो, डॉलर के मुकाबले 20 साल के न्यूनतम स्तर पर है. आखिर क्या वजह है कि दुनियाभर की करेंसी डॉलर के मुकाबले कमजोर हो रही हैं और डॉलर लगातार मजबूत होता जा रहा है?
पंकज कुमार
- नई दिल्ली,
- 19 जुलाई 2022,
- (अपडेटेड 19 जुलाई 2022, 1:46 PM IST)
- एक डॉलर की कीमत 80 रुपये हुई
- डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हुआ
मेरी पीढ़ी ने जबसे होश संभाला है तब से अख़बारों और टीवी पर यही हेडलाइन पढ़ी कि डॉलर के मुकाबले रुपये में रिकॉर्ड गिरावट. आज फिर हेडलाइन है रुपये में रिकॉर्ड गिरावट, एक डॉलर की कीमत 80 रुपये के पार हुई. अक्सर डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत को देश की प्रतिष्ठा के साथ जोड़ा जाता है. लेकिन क्या यह सही है? आजादी के बाद भारत सरकार ने लंबे समय तक डॉलर को क्या प्रभावित करता है डॉलर को क्या प्रभावित करता है कोशिश की कि रुपये की कीमत को मजबूत रखा जा सके. लेकिन उन देशों का क्या जिन्होंने खुद अपनी करेंसी की कीमत घटाई? करेंसी की कीमत घटाने की वजह से उन देशों की डॉलर को क्या प्रभावित करता है आर्थिक हालत न केवल बेहतर हुई बल्कि दुनिया की चुनिंदा बेहतर अर्थव्यवस्थाओं में वो देश शामिल भी हुए.
डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत कैसे तय होती है?
किसी भी देश की करेंसी की कीमत अर्थव्यवस्था के बेसिक सिद्धांत, डिमांड और सप्लाई पर आधारित होती है. फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में जिस करेंसी की डिमांड ज्यादा होगी उसकी कीमत भी ज्यादा होगी, जिस करेंसी की डिमांड कम होगी उसकी कीमत भी कम होगी. यह पूरी तरह से ऑटोमेटेड है. सरकारें करेंसी के रेट को सीधे प्रभावित नहीं कर सकती हैं.
करेंसी की कीमत को तय करने का दूसरा एक तरीका भी है. जिसे Pegged Exchange Rate कहते हैं यानी फिक्स्ड एक्सचेंज रेट. जिसमें एक देश की सरकार किसी दूसरे देश के मुकाबले अपने देश की करेंसी की कीमत को फिक्स कर देती है. यह आम तौर पर व्यापार बढ़ाने औैर महंगाई को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है.
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उदाहरण के तौर पर नेपाल ने भारत के साथ फिक्सड पेग एक्सचेंज रेट अपनाया है. इसलिए एक भारतीय रुपये की कीमत नेपाल में 1.6 नेपाली रुपये होती है. नेपाल के अलावा मिडिल ईस्ट के कई देशों ने भी फिक्स्ड एक्सचेंज रेट अपनाया है.
किसी करेंसी की डिमांड कम और ज्यादा कैसे होती है?
डॉलर दुनिया की सबसे बड़ी करेंसी है. दुनियाभर में सबसे ज्यादा कारोबार डॉलर में ही होता है. हम जो सामान विदेश से मंगवाते हैं उसके बदले हमें डॉलर देना पड़ता है और जब हम बेचते हैं तो हमें डॉलर मिलता है. अभी जो हालात हैं उसमें हम इम्पोर्ट ज्यादा कर रहे हैं और एक्सपोर्ट कम कर रहे हैं. जिसकी वजह से हम ज्यादा डॉलर दूसरे देशों को दे रहे हैं और हमें कम डॉलर मिल रहा है. आसान भाषा में कहें तो दुनिया को हम सामान कम बेच रहे हैं और खरीद ज्यादा रहे हैं.
फॉरेन एक्सचेंज मार्केट क्या होता है?
आसान भाषा में कहें तो फॉरेन एक्सचेंज एक अंतरराष्ट्रीय बाजार है जहां दुनियाभर की मुद्राएं खरीदी और बेची जाती हैं. यह बाजार डिसेंट्रलाइज्ड होता है. यहां एक निश्चित रेट पर एक करेंसी के बदले दूसरी करेंसी खरीदी या बेची जाती है. दोनों करेंसी जिस भाव पर खरीदी-बेची जाती है उसे ही एक्सचेंज रेट कहते हैं. यह एक्सचेंज रेट मांग और आपूर्ति के सिंद्धांत के हिसाब से घटता-बढ़ता रहा है.
करेंसी का डिवैल्यूऐशन और डिप्रीशीएशन क्या है?
करेंसी का डिप्रीशीएशन तब होता है जब फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट पर करेंसी की कीमत घटती है. करेंसी का डिवैल्यूऐशन तब होता है जब कोई देश जान बूझकर अपने देश की करेंसी की कीमत को घटाता है. जिसे मुद्रा का अवमूल्यन भी कहा जाता है. उदाहरण के तौर पर चीन ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया. साल 2015 में People’s Bank of China (PBOC) ने अपनी मुद्रा चीनी युआन रेनमिंबी (CNY) की कीमत घटाई.
मुद्रा का अवमूल्यन क्यों किया जाता है?
करेंसी की कीमत घटाने से आप विदेश में ज्यादा सामान बेच पाते हैं. यानी आपका एक्सपोर्ट बढ़ता है. जब एक्सपोर्ट बढ़ेगा तो विदेशी मुद्रा ज्यादा आएगी. आसान भाषा में समझ सकते हैं कि एक किलो चीनी का दाम अगर 40 रुपये हैं तो पहले एक डॉलर में 75 रुपये थे तो अब 80 रुपये हैं. यानी अब आप एक डॉलर में पूरे दो किलो चीनी खरीद सकते हैं. यानी रुपये की कीमत गिरने से विदेशियों को भारत में बना सामान सस्ता पड़ेगा जिससे एक्सपोर्ट बढ़ेगा और देश में विदेशी मुद्रा भंडार भी बढ़ेगा.
डॉलर की कीमत रुपये के मुकाबले क्यों बढ़ रही है?
डॉलर की कीमत सिर्फ रुपये के मुकाबले ही नहीं बढ़ रही है. डॉलर की कीमत दुनियाभर की सभी करेंसी के मुकाबले बढ़ी है. अगर आप दुनिया के टॉप अर्थव्यवस्था वाले देशों से तुलना करेंगे तो देखेंगे कि डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत उतनी नहीं गिरी है जितनी बाकी देशों की गिरी है.
यूरो डॉलर के मुकाबले पिछले 20 साल के न्यूनतम स्तर पर है. कुछ दिनों पहले एक यूरो की कीमत लगभग एक डॉलर हो गई थी. जो कि 2009 के आसपास 1.5 डॉलर थी. साल 2022 के पहले 6 महीने में ही यूरो की कीमत डॉलर के मुकाबले 11 फीसदी, येन की कीमत 19 फीसदी और पाउंड की कीमत 13 फीसदी गिरी है. इसी समय के भारतीय रुपये में करीब 6 फीसदी की गिरावट आई है. यानी भारतीय रुपया यूरो, पाउंड और येन के मुकाबले कम गिरा है.
डॉलर क्यों मजबूत हो रहा है?
रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से दुनिया में अस्थिरता आई. डिमांड-सप्लाई की चेन बिगड़ी. निवेशकों ने डर डॉलर को क्या प्रभावित करता है की वजह से दुनियाभर के बाज़ारों से पैसा निकाला और सुरक्षित जगहों पर निवेश किया. अमेरिकी निवेशकों ने भी भारत, यूरोप और दुनिया के बाकी हिस्सों से पैसा निकाला.
अमेरिका महंगाई नियंत्रित करने के लिए ऐतिहासिक रूप से ब्याज दरें बढ़ा रहा है. फेडरल रिजर्व ने कहा था कि वो तीन तीमाही में ब्याज दरें 1.5 फीसदी से 1.75 फीसदी तक बढ़ाएगा. ब्याज़ दर डॉलर को क्या प्रभावित करता है बढ़ने की वजह से भी निवेशक पैसा वापस अमेरिका में निवेश कर रहे हैं.
2020 के आर्थिक मंदी के समय अमेरिका ने लोगों के खाते में सीधे कैश ट्रांसफर किया था, ये पैसा अमेरिकी लोगों ने दुनिया के बाकी देशों में निवेश भी किया था, अब ये पैसा भी वापस अमेरिका लौट रहा है.
जब रुपया गिरता है तो इसका क्या असर होता है, समझिए आसान भाषा में
Dollar Rate Effect: अक्सर देखा जाता है कि लोग डॉलर के रेट को लेकर चिंता में रहते हैं. क्या आप जानते हैं कि आखिर जब डॉलर के सामने रुपया कमजोर होता है तो भारत पर कैसे असर पड़ता है.
TV9 Bharatvarsh | Edited By: मोहित पारीक
Updated on: Oct 18, 2022 | 4:50 PM
अमेरिकन डॉलर के सामने भारत का रुपया लगातार गिरता जा रहा है. मंगलवार को अमेरिकी मुद्रा के मुकाबले सात पैसे की गिरावट के साथ 82.37 प्रति डॉलर (अस्थायी) पर बंद हुआ. ऐसा पहली बार हो रहा है कि जब भारतीय करेंसी इतने निचले स्तर पर जा चुकी है. भारतीय करेंसी डॉलर के सामने लगातार गिरावट की ओर जा रही है. इन दिनों रुपये के कमजोर ना होने और डॉलर के ज्यादा मजबूत होने पर भी बहस चल रही है. ऐसे में सवाल है कि आखिर रुपया गिरता है तो इससे असर क्या होता है.
तो आज हम आपको बता रहे हैं कि जब भी पैसा गिरता है डॉलर को क्या प्रभावित करता है तो भारत में आम आदमी पर क्या असर होता है. साथ ही जानते हैं कि किस तरह से डॉलर और रुपये की वैल्यू लोगों को प्रभावित करती है….
वैसे भारत भी काफी चीजें विदेश में निवेश करता है, लेकिन भारत का आयात, भारत के निवेश से ज्यादा है. यानी हम सामान बेचते कम हैं, जबकि खरीदते ज्यादा हैं. ऐसे में हमारे पास डॉलर आता कम है और जाता ज्यादा है. यानी भारत में अरबों का माल डॉलर की कीमत के आधार पर खरीदा जाता है. इस वजह से भारत को डॉलर के एवज में ज्यादा देने होते हैं. अब जितना ज्यादा डॉलर की वैल्यू होगी, उतनी ही ज्यादा कीमत भारत को आयात सामान के लिए चुकानी होगी.
क्या है आयात-निर्यात का हिसाब?
अगर सितंबर के आयात-निर्यात के आंकड़े देखें तो भारत ने निर्यात कम किया है, जबकि आयात काफी ज्यादा है. आयात ज्यादा होने से भारत को व्यापार घाटा 1 लाख 24 हजार 740 करोड़ रुपये का हुआ. यानी जितने रुपये बेचने से आए, उससे ज्यादा पैसे दूसरे सामान खरीदने में लग गए. ऐसे में डॉलर की कीमत गिरने से भारत को नुकसान ही हो रहा है, क्योंकि व्यापार घाटा भारत का काफी ज्यादा है.
दुनिया में करीब 80 फीसदी व्यापार डॉलर में होता है. हर सामान के बनने में डॉलर का इस्तेमाल हुआ है. किसी ना किसी के सामान की प्रोसेस वो आइटम इस्तेमाल होता है, जो विदेश से आता है. इसका मतलब है कि उसके लिए ट्रेड डॉलर में ही किया होगा. सीधे शब्दों में कहें तो आपके काम में आने वाले अधिकतर सामान का संबंध डॉलर से होता है और उससे बनने तक ट्रेड डॉलर में हो रखा होता है. ऐसे में हर सामान पर डॉलर और भारती करेंसी की वैल्यू से असर पड़ता है. अगर डॉलर की वैल्यू ज्यादा है डॉलर को क्या प्रभावित करता है तो हमारे लिए सामान की कीमत ज्यादा हो जाएगी.
अब असर की बात करें तो यह साफ है कि जब भारत का खर्चा ज्यादा हो रहा है तो भारत के लिए यह गलत संकेत है, जिसका असर हर वर्ग पर पड़ता है. इसके साथ ही जो व्यापार आयात पर ज्यादा निर्भर करते हैं, उन व्यापार से जुड़े सामान भी डॉलर की कीमत बढ़ने पर बढ़ जाते हैं. लेकिन, भारत में अधिकतर सामान में आयात से जुड़ी चीजे शामिल हैं, जिससे कीमतें लगातार बढ़ती जाती हैं.
Rupee Dollar Rate: कभी मजबूत तो कभी हो जाता है कमजोर, आपको पता है अपने रुपये का मूल्य कौन तय करता है?
इन दिनों अमेरिकी डॉलर (US Dollar) के मुकाबले रुपये के मूल्य (Rupee Value) में भारी उतार-चढ़ाव देखी जा रही है। कभी रुपया डॉलर के सामने कमजोर हो जाता है तो कभी इसकी सेहत में सुधार हो जाता है। आपको पता है कि इसके पीछे कौन से कारक जिम्मेदार होते हैं।
Rupee Dollar Rate: कभी मजबूत तो कभी हो जाता है कमजोर, आपको पता है अपने रुपये का मूल्य कौन तय करता है?
1991 तक मजबूत था रुपया
पुराने समय की कुछ यादों को ताजा करते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 1991 में भारतीय रुपये का मूल्य एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 22.74 रुपये था। दस साल बाद साल 2001 में रुपये की वैल्यू एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 47.19 रुपये थी। लेकिन अक्टूबर 2022 में रुपया डॉलर के मुकाबले 83.26 रुपये के सर्वकालिक उच्च स्तर को छू गया।
रुपया कमजोर हो रहा है या डॉलर मजबूत
अभी कुछ समय पहले रुपये के मूल्य को लेकर भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की एक टिप्पणी ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। उन्होंने कहा था कि, 'वे रुपये में गिरावट नहीं, बल्कि इसे डॉलर की मजबूती के रूप में देखती हैं, डॉलर लगातार मजबूत हो रहा है’। तो क्या डॉलर ही हमारे रुपये की कीमत तय करता है? हां, कुछ हद तक। लेकिन जैसा कि हमने पहले कहा था, इसके पीछे एक साइंस है। दरअसल, भारतीय रुपये की कीमत तय करने के पीछे कई फैक्टर काम करते हैं।
महत्वपूर्ण होता है ब्याज दर
जब आपको पता चले कि किसी इंस्ट्रूमेंट की ब्याज दर हाल ही में बढ़ी है, तो आप क्या करेंगे? जाहिर सी बात है आप अपना सरप्लस मनी (surplus money) को एक असेट क्लास से निकाल लेंगे। और, अपने धन को वहां जमा करेंगे जहां अधिकतम सुनिश्चित रिटर्न मिलेगा। इसी तरह का कॉन्सेप्ट यहां है। यूएस फेड लगातार ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर रहा है, जिससे अमेरिकी डॉलर एक आकर्षक निवेश विकल्प बन गया है। दुनिया भर से बड़े निवेशक दूसरे देशों से पैसा निकाल रहे हैं और अमेरिका में निवेश कर रहे हैं। जिससे डॉलर पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो रहा है।
आरबीई क्यों बढ़ा रहा है ब्याज दर
अभी आपने जाना कि अमेरिकी फेड रिजर्व (US Fed Reserve) लगातार ब्याज दर में बढ़ोतरी कर रहा है। इसलिए दुनिया भर से पैसा वहां जमा हो रहा है। यदि किसी अन्य देश को उससे मुकाबला करना है तो उसे भी ब्याज दर में बढ़ोतरी करनी होगी। इसलिए RBI को भी दरों में बढ़ोतरी करनी पड़ रही है। ताकि निवेशक हमारे देश से धन न निकालें।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार
चूंकि बड़े निवेशक अपना जमा निकाल कर अमेरिका में निवेश कर रहे हैं। इसलिए, दुनिया भर के देशों में डॉलर की कमी होगी। इसका नतीजा हाई डिमांड के रूप में देखने को मिलेगा। यदि किसी देश में निर्यात ज्यादा और आयात कम होता है, तो उस देश के अधिशेष डॉलर जमा (surplus dollar deposits) में बढ़ोतरी होगी। इसलिए उन्हें बाजार से डॉलर खरीदने के लिए अपनी मुद्रा खर्च नहीं करनी पड़ेगी। इससे अमेरिकी डॉलर के मुकाबले उस देश की करेंसी की वैल्यू बढ़ेगी।
भारत के साथ ऐसा नहीं है
भारत का विदेशी व्यापार अपने पक्ष में नहीं है। हम जितनी रकम का निर्यात करते हैं, उससे ज्यादा रकम का आयात कर लेते हैं। आयात बिलों के निपटान के लिए हमारी करेंसी अमेरिकी डॉलर पर निर्भर है। यदि हम दुनिया में डॉलर की कमी के बीच डॉलर खरीदते हैं तो हमें अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए अपने भारतीय रुपये का ज्यादा भुगतान करना होगा। इससे देश की करेंसी पर और ज्यादा दबाव बढ़ता है।
मौद्रिक नीति का भी पड़ता है असर
रिजर्व बैंक के मौद्रिक नीति की वजह से आपके 500 रुपये के नोट का मूल्य हर दिन बदलता रहता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक रुपये की मांग और आपूर्ति पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए विभिन्न मुद्राओं को खरीदता और बेचता है। ताकि रुपये का मूल्य स्थिर रहे। इसके अलावा रेपो रेट या लिक्विडिटी रेश्यो जैसे मौद्रिक नीति परिवर्तन भी रुपये के मूल्य को प्रभावित करते हैं।
रुपये के मूल्य में बदलाव का आप पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
यदि आप विदेश में पढ़ाई की योजना बना रहे हैं, तो रुपये के मूल्य में गिरावट के साथ आपको उच्च शिक्षण शुल्क देना होगा। साथ ही विदेश में रहने की आपकी लागत भी बढ़ जाएगी।
कैलेंडर वर्ष 2022 में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये में 9.8% की गिरावट आई। ऐसे में हमारा आयात और महंगा होगा।
जब भी रुपये का मूल्य गिरता है, तो इसका असर आम आदमी की जेब पर भी पड़ता है। यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से देश के नागरिकों प्रभावित करता है।
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